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 Does BJP will win 2024 election ?


भारत की राजनीति आपको हैरान करने का कोई मौका नहीं छोड़ती। जब बिहार में एक बार फिर राजद के साथ मिलकर नीतीश सरकार बनी और नीतीश कुमार ने आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो चर्चाओं का बाजार भी गर्म हो गया लेकिन सरकार बदलने की इस पूरी कोशिश ने कई सवालों को जन्म दे दिया और जाहिर सी बात है कि सवाल होंगे तो चर्चा भी होगी. अब सवाल एक ही है कि क्या बीजेपी से नीतीश की इस दूरी का असर लोकसभा चुनाव 2024 पर पड़ेगा और क्या नीतीश द्वारा लगातार विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास 2024 में कोई बड़ा उलटफेर ला सकता है? या फिर यूँ कह लीजिए कि क्या टूटने की ओर बढ़ रहा है बीजेपी का 2024 जीतने का सपना?

इसके एनालिसिस तो कई हैं लेकिन हम आपके लिए लेकर आए हैं- सुपर एनालिसिस, वो भी बिल्कुल आसान भाषा में।


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who will win 2024 election in India?

आइए भारत के चुनावी मानचित्र को 3 पट्टियों के रूप में देखते हैं। पहला है तटीय क्षेत्र- पश्चिम बंगाल से केरल और पंजाब से कश्मीर तक यह क्षेत्र फैला है। इस क्षेत्र में 190 लोकसभा सीटें हैं, जहां पर पिछली बार बीजेपी और उसके सहयोगियों ने केवल 42 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन इसबार का समीकरण थोड़ा अलग होगा क्यूंकि इस क्षेत्र में भाजपा के तीन परत वाले एजेंडे- राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और लाभार्थी योजना में लाभार्थी योजना का एक विशेष महत्व स्थापित होता जा रहा है। इस त्रिकोणीय एजेंडे के साथ बीजेपी के मजबूत होने से उसे बंगाल और तेलंगाना में भी कुछ लाभ मिलने की उम्मीद जगी है। वैसे आखिरी लोकसभा चुनाव में बंगाल में बीजेपी का मजबूत होना इस ओर खुलकर इशारा भी कर रहा है फिर भी अभी के लिए संतुलित दृष्टिकोण के साथ यह मान लेते हैं कि बीजेपी इस स्पेस में लगभग 50 सीटों के साथ सीमित रह सकती है।

यह सर्वविदित है कि बीजेपी की सीटें उन क्षेत्रों से आती हैं जिसे हिंदी पट्टी का क्षेत्र कहा जाता है और इस क्षेत्र के अंतर्गत उत्तर पश्चिम के प्रांत मुख्य रूप से आते हैं, जिसमें कुल 203 लोकसभा सीटें मौजूद हैं। गौरतलब है कि पिछली बार बीजेपी और उसके सहयोगियों ने इन 203 में से 182 सीटें जीती थीं। हमसब जानते हैं कि बीजेपी ने 2014 और 2019 दोनों में मजबूत उपस्थिति के साथ इस क्षेत्र से लीड किया था पर फिर भी हम यह मानकर चल सकते हैं कि भाजपा इस क्षेत्र में एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर के कारण कुछ मामूली नुकसान भी उठा सकती है पर इस नुकसान के बावजूद ताजा सर्वे यह बताते हैं कि भाजपा को 160 सीटों से नीचे रोक पाना विपक्ष के लिए बड़ी चुनौती होगी।

अब 2024 की लड़ाई जीतने के लिए, भाजपा को मध्य बेल्ट में आनेवाली 150 में से 65 सीटों की आवश्यकता होगी जिसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, असम, त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर जैसे राज्य आते हैं। चलिए इस चुनावी समीकरण का आकलन कर्नाटक से शुरू करते हैं, हालांकि बीजेपी कर्नाटक में खास रणनीति के साथ तैयारी कर रही है, लेकिन इसबार 28 में से 25 सीटों पर जीत हासिल करना मुश्किल काम नजर आ रहा है, वहीं महाराष्ट्र में गठबंधन में बंटवारा बीजेपी के लिए चुनावी चुनौती पैदा कर सकती है, लेकिन यहां यह देखना भी दिलचस्प होगा कि हिंदू वोटर का सेंटिमेंट उद्धव ठाकरे के साथ कायम रहता है या फिर उद्धव ठाकरे की जगह एकनाथ शिंदे ले लेते हैं। महाराष्ट्र में बना यह नया समीकरण चाहे जो भी मोड़ ले पर इतना तो तय है कि बीजेपी को 2019 का इतिहास दोहराने में मुश्किल जरूर खड़ी होगी।

2024 Loksabha elections analysis?


अब वक्त है बिहार के चुनावी समीकरण को खंगालने का। अगर नीतीश-तेजस्वी गठबंधन 2024 तक कायम रहता है, तो महागठबंधन और बीजेपी का वोट शेयर अनुपात कम से कम 42:38 के साथ तो जरूर आएगा, क्योंकि नीतीश कुमार की छवि अब वैसी नहीं रही जिसके लिए उन्हें "सुशासन बाबू" के नाम से जाना जाता था। राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो कुर्सी के लिए बार-बार सत्तापलट करने से "बैकवर्ड वोट" का नुकसान इसबार नीतीश कुमार को होना तय है और भाजपा अच्छी तरह जानती है कि चुनावी अंकगणित को मोड़ने के लिए ऐसे अवसरों को कैसे भुनाना चाहिए।

इसके बाद आखिरी के बचे प्रांतों के चुनावी आकलन के लिए यदि हम यह मानकर चलें कि भाजपा झारखंड, असम और पहाड़ी राज्यों में लगभग वैसा ही प्रदर्शन करेगी जितना कि उसने पिछली बार किया था, तो भी इस चुनावी अंकगणित के अनुसार भाजपा को 90 के आंकड़े तक पहुंचने में ज्यादा मुश्किल नहीं आएगी जबकि अपनी जीत बरकरार रखने के लिए भाजपा को इन प्रांतो से महज 65 सीटों की ही आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए जब तक विपक्ष कोई करिश्मा नहीं करता, तब तक बहुमत बनाए रखने के लिए भाजपा "चिंता न करें" वाली स्थिति में है और जिस प्रकार अभीतक विपक्ष का तानाबाना नजर आ रहा है वह भाजपा के लिए और भी सुकून के पल लेकर आ रहा है।

हालांकि विपक्ष के कुछ नेता गठबंधन पर मशक्कत तो कर रहे हैं पर वह यह समझने की भूल कर रहे हैं कि यदि चुनाव के पूर्व के आखिरी 6 महीनों में कोई गठबंधन हो भी गया तो यह सिर्फ पार्टियों और नेताओं का गठबंधन होगा और इसका असर न तो कार्यकर्ताओं तक जाता दिखेगा और न ही जनता को यह गठबंधन इतना प्रभावित कर पाएगा कि वोटबैंक टर्नआउट की स्थिति बन पाए

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