How to Become a Politician: Steps and Frequently Asked Questions | Your Career in Politics: Here’s How You Can Start

 

How to Become a Politician: Steps and Frequently Asked Questions

राजनीति में ऐसे चलता है जाति का खेल- एक अद्भुत विश्लेषण

राजनीतिक विश्लेषकों को तो आपने टीवी पर बैठकर जातीय समीकरण के बारे में खूब बातें करते सुना होगा, चुनाव के वक्त वे बताते रहते हैं कि किन लोकसभा या विधानसभा क्षेत्रों में किन-किन जातियों का दबदबा है और वहाँ कौन सी पार्टी या फिर कौन सा उम्मीदवार ज्यादा मजबूत है और जब ऐसे विश्लेषणों को हम सुनते हैं तो हम सोचने लगते हैं कि आखिर क्यूँ राजनीति में जातियों को इतना महत्व दिया जाता है पर वहीं जब दूसरी तरफ हम ऐसे उम्मीदवारों या पार्टियों को उन जगहों पर चुनाव हारते देखते हैं जहाँ उनकी जातियों का बोलबाला था तो हम ये मान बैठते हैं कि शायद जातीय समीकरण का महत्व अब राजनीति में कम होता जा रहा है, उदाहरण के लिए 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में जब लोगों ने मायावती की बड़ी हार देखी तो कयास लगाने लगे कि अब राजनीति जातियों से ऊपर उठकर अपने नये स्वरुप में आने लगी है, अब लोग विकास के मुद्दे पर वोट करने लगे हैं पर क्या ऐसे अनुमान सही हैं, क्या राजनीति से जातीय समीकरण समाप्त हो चूका है या कभी समाप्त हो सकता है? जवाब है नहीं, इन दोनों पक्षों को देखने के बाद हम सोच में पड़ जाते हैं कि आखिर सच्चाई क्या है, वर्तमान राजनीतिक दौर में जातियों का महत्व है या नहीं? आखिर ऐसा क्यूँ होता है कि किसी एक चुनाव में जातियों का महत्व इतना बढ़ जाता है कि जातीय समीकरण साधे बिना चुनाव जीतना असंभव हो जाता है जबकि वहीं दुसरे चुनाव में लोग जातियों से ऊपर उठकर विकास के मुद्दे पर वोट करने लगते हैं, आइए समझते हैं राजनीति के पुरे जातीय समीकरण के इस खेल को 

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Frequently asked questions

राजनीति में जातियों का महत्व है भी और नहीं भी पर यदि आप किसी एक नजरिए से चुनावों को देखेंगे तो उसका सम्पूर्ण विश्लेषण कभी नहीं कर पाएंगे क्यूंकि राजनीति में ये दोनों चीजें एकसाथ होती हैं, बस आपको इसके बीच के बारीक फर्क को समझने की जरुरत है क्यूंकि आपको जातीय समीकरण को लेकर जो दिखाया या बताया जाता है वो आपके भीतर सिर्फ ग़लतफ़हमी पैदा करता है, इसलिए राजनीति के इस पुरे जातीय समीकरण को समझने के लिए आपको कुछ चुनावों की केस स्टडी समझनी होगी 

Elections in India

पहली केस स्टडी है 1984 का लोकसभा चुनाव जो राजीव गाँधी के नेतृत्व में लड़ा गया था और इसमें कांग्रेस को 414 सीटों के साथ ऐतिहासिक जीत मिली, अब बड़ा सवाल है कि आखिर ऐसा क्यूँ हुआ था, राजीव गाँधी के जाति के लोगों की संख्या तो भारत में काफी कम है तो आप कहेंगे- नहीं ऐसा नहीं है, उस वक्त इंदिरा गाँधी की मृत्यु हुई थी और इसी सहानुभूति में उनके बेटे राजीव गाँधी को लोकसभा में इतनी प्रचंड जीत मिली, अब दूसरा उदाहरण 1989 के लोकसभा चुनाव का, जिसमें वी पी सिंह ने उन्हीं राजीव गाँधी को हराया जिन्हें पिछली बार इतनी प्रचंड जीत मिली थी और इसका कारण क्या था, कारण था बोफोर्स घोटाले का सामने आना मतलब एक भ्रष्टाचार का मुद्दा 

How to Become a Politician in India: Real Life Case Studies

अब दो उदाहरण और लेते हैं और फिर समझेंगे जातीय समीकरण के पीछे के पुरे गणित को, पहला उदाहरण है 2014 लोकसभा चुनाव का, इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी को प्रचंड जीत मिली और इसका कारण बताया गया कि पुरे देश में मोदी की लहर थी, मोदी का व्यक्तित्व इतना बड़ा हो चूका था कि पुरे भारत के लोगों को मोदी में एक आस दिखने लगा था, इसके बाद आया 2019 का लोकसभा चुनाव, इस चुनाव में जब नरेंद्र मोदी फिर से जीत कर आए तो कहा गया कि ये जीत राष्ट्रवाद की लहर के कारण हुई क्यूंकि पुलवामा हमले के बाद भारत ने जिस तरीके से पाकिस्तान को घेरा उससे पुरे देश में एक राष्ट्रवाद की लहर फैल गयी, अब जरा गौर से देखें इन चारों चुनावों को और समझें कि क्या इन चुनावों में कहीं जाति का फैक्टर आता भी है, एक चुनाव में सहानुभूति कारण बना तो दुसरे चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा कारण बना, तीसरे चुनाव में एक व्यक्ति की पर्सनालिटी कारण बनी वहीं चौथे चुनाव में राष्ट्रवाद की लहर कारण बनी और ऐसे कई और चुनाव हुए जो जाति से इतर मुद्दों पर लड़े गये जैसे अरविंद केजरीवाल की दिल्ली में मिली प्रचंड जीत, ममता बनर्जी का बंगाल में प्रचंड बहुमत लाकर सबको हैरत में डाल देना, तो आखिर इन सब चुनावों में कहाँ थी जातियाँ और कहाँ थे जातीय समीकरण 

  

Your Career in Politics: Here’s How You Can Start

भारत के हर राज्य में वहाँ की अपनी जातियाँ है और जातियों का उतना ही राजनीतिक महत्व भी है और हर राज्य में जाति फैक्टर पर चुनाव लड़े भी जाते हैं और जीते भी जाते हैं, यहाँ जितने चुनावों का जिक्र किया गया उसके अलावा भी कई चुनाव हैं जो मुद्दों पर लड़े गये और जीते भी गये पर ये बात भी उतनी ही सच है कि कई चुनाव ऐसे भी हुए जो जातीय समीकरण पर लड़े गये और जीते गये, तो फिर क्या मतलब निकालें इसका कि राजनीति में जातियों का महत्व है या नहीं, बिलकुल है यदि मुद्दा इतना मजबूत नहीं है जो आम जनता को अपील कर सके या फिर आप उतने मजबूत नहीं हैं कि आम जनता यह विश्वास दिला सकें कि आप उसके मुद्दों का, उसकी चिंताओं का समाधान निकाल सकोगे तो बेशक यह जनता जातीय समीकरण पर ही वोट करेगी पर जिस समय जनता को यह लग गया कि उसके सामने खड़ा व्यक्ति सक्षम और मजबूत है, उस वक्त जनता जातियों से ऊपर उठकर वोट करती है

 

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एक बात और कि यहाँ जो उदाहरण रखे गये हैं वे बड़े चुनाव के उदाहरण थे पर ये चीजें छोटे चुनावों पर भी लागु होती हैं, जैसे किसी एक विधानसभा या लोकसभा का चुनाव, मेयर या डिप्टी मेयर का चुनाव, मुखिया या वार्ड पार्षद का चुनाव, यहाँ भी जातीय समीकरण पर चुनाव चलते हैं पर कई बार ऐसा देखा गया है कि इन चुनावों में ऐसा प्रत्यासी जीतकर आया जिसकी जाति के लोग उस क्षेत्र में नहीं के बराबर थे, तो आखिर क्यूँ हुआ ऐसा, क्यूंकि उस प्रत्यासी ने अधिकांश जनता को प्रभावित करनेवाला एक ऐसा मुद्दा उठाया जिसके साथ लोगों की आशाएं जगी, उन्हें लगा कि इस व्यक्ति में वो दम है जो उनकी चिंताओं को दूर कर सकता है, राजनीति में जनता नेताओं के व्यवहार और वादाखिलाफी से इतना निराश हो चुकी है कि जहाँ भी उसे आशा की कोई एक किरण दिखाई देती है वो वहां जाने को तैयार होती है, बस जरुरत है आपको अपना वो व्यक्तित्व जनता के सामने रखने की जिसमें वो आशा की किरण देख सके और यदि आप ऐसा नहीं कर पाएंगे तो आपके पास जाति पर चुनाव लड़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचेगा                 

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